अतीक अहमद और भाई अशरफ की मीडिया और पुलिस के सामने तीन शूटरों ने हत्या कर दी। पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में हुई इस हत्या ने कई सवाल पैदा कर दिए हैं।
एक बड़ा सवाल ये भी कि अगर अशरफ के हाथ अतीक वाली हथकड़ी से नहीं बंधे होते तो क्या उसकी जान बच सकती थी। वीडियो में साफ देखा जा सकता है कि जैसी ही अतीक पर हमला होता है अशरफ भागने की कोशिश करता है लेकिन उसका हाथ अतीक के साथ हथकड़ी में बंधा होता है इसलिए वो एक झटका खाता है तभी उस पर भी गोलियां चल जाती हैं।
हालांकि चश्मदीदों के मुताबिक अतीक पर पहली गोली चलते ही अशरफ पर दूसरे हमलावर ने सेकेंड के 100वें हिस्सें में ही फायरिंग कर दी थी।
अतीक और अशरफ की हत्या जिस समय हुई उस वक्त दोनों के आस-पास पत्रकार अपना कैमरा लिए मौजूद थे। मीडिया के कैमरे में ये साफ देखा गया कि अतीक और अशरफ के हाथ एक ही हथकड़ी में बंधा हुए थे। 1978 में सुनील बत्रा बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ये कह चुका है कि राज्यों को हथकड़ी का अंधाधुध इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट तब के अपने फैसले में ये कह चुका है कि लापरवाही से हथकड़ी लगाना, सार्वजनिक रूप से मुजरिमों को जंजीरों में बांधना संवेदनाओं को शर्मसार करता है और यह हमारी संस्कृति पर कलंक है। हथकड़ी लगाने के लिए कोर्ट की इजाजत लेनी होगी और अगर इसकी इजाजत मिली हुई है तो इसका भी एक नियम है कि कैसे कैदी को इस पर बांधना है।
29 मार्च 1980 को प्रेम शंकर शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी मुजरिम के दोनों हाथों या पैरों को एक साथ बांधना मुजरिमों को एक तरह का यातना देने जैसा है। ऐसे में अपराधी पूरी तरह से बंध जाता है और सार्वजनिक रूप से कुछ भी ऊंच-नीच होने पर अपना बचाव कर पाने में असमर्थ होता है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह भी करते हुए कहते हैं कि कोर्ट की बिना इजाजत से हथकड़ी नहीं लगाई जा सकती है। अगर इजाजत ली भी गई है तो मनमाने तरीके से इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। उनका कहना है कि एक ही हथकड़ी से दोनों का बांधना के पीछे की मंशा भी नहीं समझ आ ही है।
याद दिला दें कि अतीक और अशरफ के हाथ एक ही हथकड़ी में बांधे हुए थे। जब अतीक की गोली मारकर हत्या की गई, तो उससे बंधे अशरफ के पास गोली को चकमा देने का कोई मौका ही नहीं था।